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तोक्यो देश के सपूत रवि दहिया भले ही ओलिंपिक गोल्ड मेडल से चूक गए, लेकिन कुश्ती में सिल्वर लाने वाले वह भारत के दूसरे पहलवान बन गए। कड़ी मेहनत, वर्षों का संघर्ष और त्याग ने खेलों के महाकुंभ में उनकी 'चांदी' की। हिंदुस्तान में कुश्ती के नए पोस्टर बॉय बन चुके रवि के लिए यह सफर कतई आसान नहीं था। छत्रसाल स्टेडियम में सीखा दांवपेच महज 23 साल के रवि स्वभाव से शांत और शर्मिले हैं। उनके पिता राकेश कुमार ने उन्हें 12 साल की उम्र में छत्रसाल स्टेडियम भेजा था, तब से वह महाबली सतपाल और कोच वीरेंद्र के मार्गदर्शन में ट्रेनिंग करते रहे हैं। यह दिल्ली का वही छत्रसाल स्टेडियम है, जहां से पहले ही भारत को दो ओलिंपिक पदक विजेता सुशील कुमार और योगेश्वर दत्त मिल चुके हैं। बात करते-करते रो पड़ी मां जीत-हार पर हर कोई एक सा नहीं रहता। रवि की यही तो खासियत है। न वह सेमीफाइनल में जीत के बाद खुशी से उछले और न ही हार के बाद चेहरे पर दर्द नजर आया, लेकिन उनकी मां जरूर भावुक हो गई। एक निजी टीवी चैनल पर बातचीत के दौरान बताया कि एक माह से बात नहीं हुई। जब वह यह कह रहीं थीं तो चेहरे पर दर्द और मां की ममता समझी और देखी जा सकती थी। आखिरकार भावनाएं उमड़ ही गई और टप-टप आंखों से आंसू बहने लगे। पिता के संघर्ष ने बनाया पहलवान रवि दहिया के पिता ने कभी भी अपनी परेशानियों को बेटे की ट्रेनिंग का रोड़ा नहीं बनने दिया। वह रोज खुद छत्रसाल स्टेडियम तक दूध और मक्खन लेकर पहुंचते जो उनके घर से 60 किलोमीटर दूर था। वह सुबह साढ़े तीन बजे उठते, पांच किलोमीटर चलकर नजदीक के रेलवे स्टेशन पहुंचते। रेल से आजादपुर उतरते और फिर दो किलोमीटर चलकर छत्रसाल स्टेडियम पहुंचते। फिर घर पहुंचकर खेतों में काम करते और यह सिलसिला 12 साल तक चला। कोविड-19 के कारण लॉकडाउन से इसमें बाधा आई। बेटे के पदक से वह अपना दर्द निश्चित रूप से भूल जाएंगे। अपने गांव के तीसरे ओलिंपियन हैं रवि महज 23 साल के रवि हरियाणा के सोनीपत जिले के नाहरी गांव से आते हैं। यह वही गांव है, जिसने देश को महावीर सिंह (मास्को ओलिंपिक, 1980 और लॉस एंजिल्स ओलिंपिक 1984) और अमित दहिया (लंदन ओलिंपिक-2012) जैसे ओलिंपियन दिए। 15 हजार की आबादी वाले इस गांव में न तो पीने के पानी की सही व्यवस्था है और न ही सीवेज लाइन। बिजली तो आते-जाती रहती है। सुविधाओं के नाम पर सिर्फ जानवरों का एक अस्पताल है।
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