तोक्योखेलों की अपनी एक परम्परा है। कल्चर है, इतिहास है, जिसे सदियों से हर ऐथलीट फॉलो करते आ रहा है। पोडियम पर खड़े होकर मुस्कुराते हुए मेडल काटना भी इसी का एक हिस्सा है। मगर तोक्यो में जारी ओलिंपिक खेलों के दौरान अब आयोजकों ने ऐसा न करने की हिदायत दी है। आखिर क्या है पूरा मामला आइए समझते हैं आसान भाषा में.... इलेक्ट्रॉनिक कचरे से बनाए गए मेडलदरअसल, अपनी टेक्नोलॉजी के लिए विख्यात जापान ने इस ओलिंपिक में कई नए प्रयोग किए है। इसी सिलसिले में मेडल्स भी इलेक्ट्रॉनिक कचरे को रिसाइकिल करके बनाए गए हैं। यहां इलेक्ट्रॉनिक कचरे से आशय खराब मोबाइल फोन, लैपटॉप समेत दूसरे डिवाइस से हैं, जिन्हें खुद जापान के नागरिकों ने दान किया है। इसी से ओलिंपिक के लिए पांच हजार गोल्ड, सिल्वर और ब्रॉन्ज मेडल बनाए गए। 'हमें पता है आप फिर भी करेंगे'तोक्यो ओलिंपिक आयोजन समिति ने एक अमरीकी ऐथलीट की तस्वीर के साथ ट्वीट किया। साथ ही लिखा, 'हम यह स्पष्ट करना चाहते हैं कि तोक्यो ओलिंपिक के मेडल मुंह में नहीं रखे जा सकते। हमारे स्वर्ण, रजत और कांस्य पदक इलेक्ट्रॉनिक रिसाइकल डिवाइस से बने हैं। इसलिए आपको इन्हें काटने की जरूरत नहीं, लेकिन हमें पता है कि आप फिर भी करेंगे।' ट्वीट के बाद एक मजाकिया स्माइली भी है। खिलाड़ी दांतों से क्यों काटते हैं मेडल?मेडल जीतने के बाद एथलीट फोटोग्राफर्स के निवेदन पर ऐसा करते हैं, इससे वह पोज यादगार बन जाता है, लेकिन क्या सिर्फ यही वजह है कि ऐथलीट अपने राष्ट्रगान की धुन पर गर्व से इतराने के साथ मेडल चबा देते हैं या फिर कारण कुछ और है। काफी पुरानी है परम्परादरअसल, इसका लंबा इतिहास रहा है। चूंकि सोना मुलायम धातु है, ऐसे में इसे काटकर इसकी शुद्धता को परखा जाता है। किसी जमाने में लोग सोने को दांतों से काटकर पता लगाते थे कि गोल्ड खरा है या उस पर परत चढ़ाई गई है। बावजूद इसके ओलिंपिक खिलाड़ियों के गोल्ड मेडल पर किसी तरह का कोई निशान काटने के बाद भी नहीं पड़ता है क्योंकि उसमें सोने की मात्रा काफी कम होती है।
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